Saturday, May 3, 2014


फलसफा -ए-ज़िंदगी

कदम का उठना,
गिरना,
और आगे बढ़ जाना-
इतनी सी है ज़िंदगी।

यारों का मिलना,
रूठना,
और हमेशा के लिये दूर हो जाना-
एक विरह सी है ज़िंदगी।

अश्क़ का छलकना, 
ढकलना, 
और गाल पर कहीं सूख जाना-
पल भर की है ज़िंदगी।

एहसासों का बन्धन,
उलझन,
और उम्मीदों का दलदल-
ऐसी ही है ज़िंदगी।
बस ऐसी ही है ज़िंदगी।.…… 











Thursday, April 29, 2010

एक सच !

कभी हँसते हुए चेहरों को
ज़रा गौर से देखो,
कि ठहाकों के झरनों में
कहीं बहते अश्क न हों।

Monday, September 21, 2009

क्यों कुरेदते हो राख मेरी
ना मैं बचा न नामों-निशाँ मेरा
बस गुमनामी के अंधेरे मे
एक टूटता हुआ सितारा नज़र आता है.

Wednesday, September 9, 2009

था मैं परिंदा खुले आसमाँ का

थी उड़ान जिंदगी मेरी,

पर एक शाख के इश्क में अपने पर गवां बैठा।

अब झुलसता हूँ अपनी ही आहों में

कि,

ना है वो शाख और ना ही रही वो उड़ान

पर ज़ज्बा इतना है

कि इन दो आखों में आसमाँ लिए बैठा हूँ।

मेरी दास्ताँ

पूर्व की उजली रौशनी से पश्चिम की ढलती लालिमा तक
मैं ही था
जो जीवन की ऊहापोह में उलझा रहा।
बन गया हर रिश्ता एक अनुबंध,
और वक्त की चक्की में हर एहसास
पल पल पिसता रहा।
छिन गए मायने जीने के
और मैं था
जो जीने को तरसता रहा
बस जीने को तरसता रहा..........

Friday, September 4, 2009

अश्क क्या?
एक बूँद खारा पानी
या एक बूँद में खारा दरिया।

अश्क क्या?
बचपन में की खिलोने की जिद
या जिद्दी आशिक की तोडी हुई हर हद।

अश्क क्या?
बेटी को विदाई में मिला बाबुल का प्यार
या दूर जाते बेटे को माँ का दुलार।

अश्क क्या?
आखों से गालों पर ढलकती हुई आह
या किसी बिछुडे हुए को पाने की चाह।

Sunday, August 30, 2009

जिंदगी भर भीड़ में रहते हुए
न जाने क्यों मैं अकेला खड़ा रह गया।

था दोस्त हर कोई
और निभाया रिश्ता मैंने भी हर कदम पर,
लेकिन न जाने क्यों मैं ही था
जो अपना दुश्मन बन गया।

कहता रहा हर किसी से
कि रुको मत बस आगे बढो,
पर न जाने क्यों मैं ही था
जो पीछे रह गया।

खीचीं हदें
हर रिश्ते ने चारो तरफ मेरे,
पर पता नही क्यों मैं ही था
जो इन हदों को पोंछता रह गया
बस इन हदों को पोंछता रह गया......